Natasha

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राजा की रानी

प्यारी ने मेरे मन के भाव को लक्ष्य करके मुसकरा दिया। कहा, “नहीं, इसमें कुछ दोष नहीं है, परन्तु क्या तुम विश्वास कर सकोगे?”

“कह देखो न।”

प्यारी ने कहा, “तुम्हें पहिचाना या महाराज, दुर्बुद्धि की मार से- और किस तरह? तुमने मेरी ऑंखों से जितना पानी बहवाया है, सौभाग्य से सूर्यदेव ने उसे सुखा दिया है। नहीं तो ऑंखों के उस जल से एक तालाब भर गया होता। पूछती हूँ, क्या इस पर विश्वास कर सकते हो?”

सचमुच ही मैं विश्वास न कर सका। परन्तु वह मेरी भूल थी। उस समय यह किसी तरह खयाल भी न आया कि प्यारी के होठों की गठन कुछ इस किस्म की है कि मानो हर बात वह मजाक में ही कहती है और मन ही मन हँसती हैं। मैं चुप रह गया। वह भी कुछ देर तक चुप रहकर इस बार सचमुच ही हँस पड़ी। परन्तु, इतनी देर में न जाने किस तरह मुझे जान पड़ा कि उसने अपनी लज्जित अवस्था को मानो सँभाल लिया है। हँसकर कहा, “नहीं महाराज, तुम्हें जितना भोला समझा था उतने भोले तुम नहीं हो। यह जो मेरा कहने का ढंग है, इसे तुमने बराबर समझ लिया है। किन्तु, यह भी कहती हूँ कि तुम्हारी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान भी इस बात पर अविश्वास नहीं कर सकते। सो यदि आप इतने अधिक बुद्धिमान हैं तो यह मुसाहबी का व्यवसाय आपने किसलिए ग्रहण किया है? यह नौकरी तो तुम्हारे जैसे आदमी से होने की नहीं। जाओ, यहाँ से चटपट खिसक जाओ!”

क्रोध के मारे मेरा सर्वांग जल उठा, किन्तु मैंने उसे प्रकट नहीं होने दिया। सहज भाव से कहा, “नौकरी जितने दिन हो, उतने ही दिन अच्छी। बैठे से बेगार भली- समझीं न! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। बाहर के लोग शायद और ही कुछ समझ बैठें।”

प्यारी बोली, “समझ बैठें, तो यह तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है महाराज, यह क्या कोई अफसोस की बात है?”

उत्तर दिये बिना ही जब मैं द्वारपर आ खड़ा हुआ तब वह अकस्मात् हँसी की फुहार छोड़कर कह उठी, “किन्तु देखो बाबू, मेरी वह ऑंखों के ऑंसुओं की बात मत भूल जाना। दोस्तों में, कुमार साहब के दरबार में, प्रकट कर दोगे तो सम्भव है तुम्हारी तकदीर खुल जाय।”

मैं उत्तर दिये बिना ही बाहर हो गया, परन्तु उस निर्लज्जा की वह हँसी और यह कदर्य परिहास मेरे सर्वांग में व्याप्त होकर बिच्छू के काँटे की तरह जलने लगा।

अपने स्थान पर आकर, एक प्याला चाय पीकर और चुरुट मुँह में दबाकर अपने को भरसक ठण्डा करके मैं सोचने लगा- यह कौन है? मैं अपनी पाँच-छ: वर्ष की उम्र तक की सब घटनाएँ स्पष्ट तौर से याद कर सकता हूँ। किन्तु अतीत में जितनी भी दूर तक दृष्टि जा सकती थी, उतनी दूर तक मैंने खूब छान-बीन कर देखा, कहीं भी इस प्यारी को नहीं खोज पाया। फिर भी, यह मुझे खूब पहचानती है। बुआ तक की बात जानती है। मैं दरिद्र हूँ, सो भी इससे अज्ञात नहीं है। इसीलिए, और तो कोई गहरी चाल इसमें हो नहीं सकती; फिर भी, जिस तरह हो, मुझे यहाँ से भगा देना चाहती है। परन्तु यह किसलिए? मेरे यहाँ रहने न रहने से इसे क्या? बातों ही बातों में उस समय इसने कहा था- संसार में लाभ-हानि ही क्या सब कुछ है? प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं है? मैंने जिसे पहले कभी ऑंख से भी नहीं देखा, उसके मुँह की यह बात याद करके भी मुझे हँसी आ गयी। किन्तु सारी बातचीत को दबाकर, उसका आखिरी व्यंग्य ही मानो मुझे लगातार छेदने लगा।

संध्याय के समय शिकारियों का दल लौट आया। नौकरों के मुँह से सुना कि आठ पक्षी मारकर लाय गये हैं। कुमार ने मुझे बुला भेजा। तबीयत ठीक न होने का बहाना करके बिस्तरों पर ही मैं पड़ रहा; और इसी तरह पड़े-पड़े रात को देर तक प्यारी का गाना और शराबियों की वाह-वाह सुनता रहा।

इसके बाद तीन-चार दिन प्राय: एक ही तरह से कट गये। 'प्राय:' कहता हूँ, क्योंकि, सिर्फ शिकार को छोड़कर और सब बातें रोज एक-सी ही होती थीं। प्यारी का अभिशाप मानो फल गया हो- प्राणी-हत्या के प्रति किसी में कुछ भी उत्साह मैंने नहीं देखा। मानो कोई तम्बू के बाहर भी न निकलना चाहता हो। फिर भी मुझे उन्होंने नहीं छोड़ा। मेरे वहाँ से भाग जाने के लिए कोई विशेष कारण हो, सो बात न थी; किन्तु इस बाईजी के प्रति मुझे मानो घोर अरुचि हो गयी। वह जब हाजिर होती, तब मानो मुझे कोई मार रहा हो ऐसा लगता- उठकर वहाँ से जब चला जाता तभी कुछ शान्ति मिलती। उठ न सकता, तो फिर और किसी ओर मुँह फिराकर, किसी के भी साथ, बातचीत करते हुए अन्यमनस्क होने की चेष्टा किया करता। इस पर भी वह हर समय मुझसे ऑंखें मिलाने की हजार तरह से चेष्टा किया करती, यह भी मैं अच्छी तरह अनुभव करता। शुरू में दो-तीन दिन उसने मुझे लक्ष्य करके परिहास करने की चेष्टा भी की; किन्तु, फिर मेरे भाव को देखकर वह बिल्कुरल सन्न हो रही।

शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया।

पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्वि‍ग्नज होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि “प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विवाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ ऑंख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं- उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।” मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, “आप मेरे पास आइए।” मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, “आप विश्वास नहीं करते?”

“नहीं।”

“क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?”

“नहीं।”

“तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी ऑंखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।” कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, “देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने ऑंखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरा धारणा है।”

उस भले आदमी ने चट से मेरे दाहिने हाथ को पकड़कर कहा, “क्या आप आज रात को श्मशान जा सकते है?” मैं हँसकर बोला, “जा सकता हूँ, बचपन से ही मैं अनेक रात्रियों में अनेक श्मशानों में गया हूँ।” वृद्ध चिढ़कर बोल उठे, “आप शेखी मत बघारिए बाबू।” इतना कहकर उन्होंने उस श्मशान का, सारे श्रोताओं को स्तम्भित कर देने वाला, महाभयावह विवरण विगतवार कहना शुरू कर दिया। “यह श्मशान कुछ ऐसा-वैसा स्थान नहीं है। यह महाश्मशान है। यहाँ पर हजारों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं। इस श्मशान में, हर रात को, महाभैरवी अपने साथियों सहित नर-मुण्डों से गेंद खेलती हैं और नृत्य करती हुई घूमती हैं। उनके खिलखिला कर हँसने के विकट शब्द से कितनी ही दफे, कितनी ही अविश्वासी अंगरेज जजों, मजिस्ट्रेटों के भी हृदय की धड़कन बन्द हो गयी है।” इस किस्म की लोमहर्षक कहानी वे इस तरह से कहने लगे कि इतने लोगों के बीच, दिन के समय, तम्बू के भीतर बैठे रहने पर भी, बहुत से लोगों के सिर के बाल तक खड़े हो गये। तिरछी नजर से मैंने देखा कि प्यारी न जाने कब पास आकर बैठ गयी है और उन बातों को मानो सारे शरीर से निगल रही है।

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